निम्नगानं यथा गंगा देवनामाच्युयतो यथा।
वैष्णावानां यथा शम्भुः पुराणानामिदम तथा ।।
बहने वाली नदियों में जैसे गंगा श्रेष्ट है, देवताओं में अच्युत श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं, वैष्णवों में भगवान शंकर जी श्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवद पुराण सबसे श्रेष्ठ है।
पर क्या आप जानते हैं कि भागवद का ज्ञान कहाँ, किसके द्वारा और किसे दिया गया था?!
शुक्रताल या शुकतीर्थ वह स्थान है जहां सर्व प्रथम शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवद का ज्ञान दिया। परीक्षित अर्जुन के पौत्र एवं अभिमन्यु तथा उत्तरा के पुत्र थे। महाभारत युद्ध में अभिमन्यू वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी पत्नी उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, परंतु श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। गर्भावस्था में ही प्रभु के दर्शन होने का सौभाग्य मात्र परीक्षित जी को ही प्राप्त हुआ है। महाभारत युद्ध के पश्चात पांडव अपना साम्राज्य परीक्षित को सौंप कर स्वर्ग चले गए एवं श्रीकृष्ण के वैकुण्ठ के पश्चात द्वापर युग का अंत हुआ एवं कलि युग का आगमन हुआ।
परीक्षित एक पुण्यात्मा थे उनके रहते कलि का प्रभाव पृथ्वी पर नहीं फैल पा रहा था। अपने आचार्य कृप की आज्ञा से उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करवाया और दिग्विजय करते हुए एक दिन वे सरस्वती के तट पर पहुंचे। उन्हें एक व्यक्ति हाथ में डंडा लिए बैल और गाय को पीटते हुए दिखा। उस बैल के एक पैर था और गाय जीर्ण अवस्था में दिख रही थी। (यह बैल साक्षात धर्म एवं गाय धरती थीं। बैल के तीन पाँव नहीं थे; कलियुग में दया, तप और पवित्रता नहीं होगी केवल सत्य होगा।)
राजा ने अपना रथ रुकवाया और क्रोधित होकर उस व्यक्ति से पूछा- ‘तू कौन अधर्मी है, जो निरीह गाय और बैल पर अत्याचार कर रहा है। तेरा कृत्य ही ऐसा है कि तुझे मृत्युदंड मिलना चाहिए।’
राजा के क्रोध से कलि डर गए और अपना परिचय देते हुए राजा परीक्षित से प्राणदान एवं शरण मांगी। कलियुग को जीवनदान देने के बाद राजा परीक्षित ने कहा- कलियुग, तू ही पाप, झूठ,चोरी, कपट और दरिद्रता का करण तू ही है। तू मेरी शरण में आया तो मैंने तूझे जीवनदान दिया। अब मेरे राज्य की सीमाओं से दूर निकल जा और कभी लौटकर मत आना। इस पर कलियुग गिड़गिड़ाते हुए विनती करने लगा- महाराज आपका राज्य तो संपूर्ण पृथ्वी पर है। मैं आपकी शरण में आया हूँ तो मुझे रहने का स्थान भी आप ही दीजिए।
राजा परीक्षित बोले कि आपके अंदर केवल और केवल अवगुण ही हैं, अगर एक भी गुण बता देंगे तो मैं अवश्य ही आपको शरण मैं शरण दूंगा। कलि ने कहा कि मेरा सबसे बड़ा गुण यही है कि कलियुग में मात्र हरि स्मरण से ही मुक्ति मिल जाएगी। परीक्षित ने विचार कर कहा कि द्युत (जुआखाना), मद्यपान (मदिरालय), परस्त्रीगमन (वैश्यालय), हिंसा (पशु-वधशाला) इन चार स्थानों पर असत्य, मद, काम एवं क्रोध रहते हैं इसलिए इन च स्थानों पर मैं आपको रहने की अनुमति देता हूँ। काली बोले एक स्थान और मैं मांगता हूँ, कृपा कर के मुझे स्वर्ण में रहने की अनुमति भी प्रदान करें। राजा परीक्षित बोले की श्रीकृष्ण ने स्वयं करा कि धातुओं में स्वर्ण मेरा स्वरुप है, इसलिए केवल हिंसा और अनीति से पाए गए स्वर्ण में ही मैं आपको रहने की अनुमति देता हूँ। तत्पश्चात राजा परीक्षित अपने महल लौट गए।
एक दिन राजा परीक्षित अपने कोषागार गए जहा उन्होंने सुन्दर रत्नो से जड़ित स्वर्ण का मुकुट देखा (यह मुकुट भीम द्वारा जरासंध से जीता गया था)। मुकुट से आकर्षित हो कर परीक्षित ने वह मुकुट धारण कर लिया। हिंसा के माध्यम से जीता होने के कारण उस स्वर्ण मुकुट में कलि ने सूक्ष्म रूप से वास किया था। मुकुट धारण करते ही कलि के प्रभाव से राजा परीक्षित की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। ४५ वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार आखेट करने का मन हुआ। उन्होंने धनुष बाण उठाया और आखेट के लिए चल पड़े। आखेट करते करते वे बहुत और उनका सैन्य पक्ष पीछे रह गया। कुछ देर और आगे जाने के बाद उन्हें प्यास लगी। थोड़ी दूर पर उन्हें एक कुटिया दिखाई पड़ी जिसमे एक ऋषि ध्यान मग्न थे। ये ऋषि शमीक थे। राजा ने कहीं बार जल देने की प्रार्थना की। किन्तु वह जल देने वाला कोई न था और न ही ऋषि अपने ध्यान साधना से उठे। कलि ने परीक्षत की बुद्धि पर अपना प्रभाव दिखाया। जिसके कारण राजा परीक्षित को ऋषि द्वारा जल ना पाने पर अपना अपमान लगा। परीक्षित ने क्रोधवश वह पड़ा एक मारा हुआ सर्प उठाया और शमीक ऋषि के गले में दाल दिया। किन्तु ऋषि शमीक तो ध्यान मग्न थे उन्हें कुछ पता नहीं चला। कुछ देर पश्चात उनके पुत्र ऋषि श्रृंगी वह ए तो अपने पिता का ऐसा अपमान देख कर बहुत क्रोधित हुए। क्रोध वास् उन्होंने श्राप दे दिया कि जिस किसी ने भी मेरे पिता के साथ यह उपहास किया आज से सातवे दिवस उसे यही सर्प तक्षक बन कर डसेगा एवं वह मृत्यु को प्राप्त होगा। जब शमीक ऋषि समाधी से उठे तो अपने योग बल से उन्हें सारा वृत्तांत ज्ञात हुआ। उन्होंने अपने पुत्र को समझाया की एक कि राजा के अंदर तो कलि का प्रभाव था परन्तु तुमने अपने तप के बल का दुरुपयोग क्यों किया ? राजा के ऊपर प्रजा का भार होता है। राजा परीक्षित पाण्डु पुत्र अर्जुन के पौत्र एवं महान योद्धा अभिमन्यु के पुत्र हैं, वे स्वयं भी पुण्यात्मा हैं। उनसे यह कृत्य कलि के प्रभाव के कारण हुआ। तुम अभी इस ही क्षण महाराज के पास जा कर उन्हें श्राप की बात से अवगत कराओ।
उधर महल लौट कर जब राजा परीक्षित ने मुकुट उतरा तो कलि का प्रभाव उनकी बुद्धि हटा। उन्हें अपने किये पर बहुत ग्लानि हुई। उन्होंने क्षोभ हुआ कि मेरे द्वारा ऐसा महापाप कैसे गया। उस ही समय शमीक ऋषि के शिष्य गौरमुख एवं ऋषि श्रृंगी महल पहुंचे और राजा को श्राप के बारे में अवगत कराया कि आज से सातवे दिवस उनकी तक्षक द्वार डसे जाने के कारण मृत्यु हो जाएगी। राजा बोले की ऋषिकुमार ने मुझे ये श्राप दे कर मुझे पर बड़ा उपकार। मैं अपने द्वारा किये गए इस पाप की ग्लानि की साथ जी नहीं पाऊंगा, मेरे लिए ये दंड उचित है। ऋषि श्रृंगी और गुरमुख जी को यथोचित सम्मान दे कर और उनसे क्षमायाचना मांग कर उन्हें विदा किया।
अपनी मृत्यु निकट जान कर राजा परीक्षित जी ने आने ज्येष्ठ पुत्र जन्मजेया को राज्य का दायित्व सौंपा और स्वयं वन को प्रस्थान किया। वे गंगा के तात पर पहुंचे जहां महर्षि विश्वामित्र, वशिष्ठ, पराशर, अंगिरा, भारद्वाज, अगस्त्य, नारद आदि अपने अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। राजा परीक्षित ने सबको नमन किया और कहा की मेरे से जो घोर अपराध हुआ है उसके पश्चात भी आप सभी दिव्यात्माओं ने मुझे दर्शन दिए इसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। मेरे जीवन के अब सात दिन ही शेष हैं, कृपया कर के मेरा मार्गदर्शन कीजिये। उस ही समय वहाँ से व्यास ऋषि के पुत्र परमज्ञानी शुकदेवजी पधारे। सभी ने खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया और बैठने के लिए उच्चासन प्रदान किया। सबने आसान ग्रहण किया, तत्पश्चात राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से मधुरवाणी में पुछा – “हे ब्रह्मरूप! हे महाभाग! मेरे अंत समय में मुझे दर्शन दे कर आपने मुझे धन्य कर दिया है। कृपा कर के मुझे बताइए की मरणास्सन प्राणी के क्या कर्त्तव्य हैं। उसे भगवद्प्राप्ति के लिए क्या जप, अनुष्ठान एवं भजन करना चाहिए। आपने परम सिद्धि प्राप्त की है, आप योगियों का भी गुरु हैं। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये।”
तब शुकदेवजी बोले – “यह प्रश्न केवल आपके लिए नहीं अपितु पृथ्वी के हर प्राणी के लिए है। आपको सात दिवस में मृत्यु का भय है। सप्ताह में सात ही दिन होते हैं किसी भी दिन हमारी मृत्यु आना निश्चित है।मृत्यु ही इस संसार का एक मात्र सत्य है। शुकदेव जी ने परीक्षित को भागवद्पुराण का रसपान कराया। तत्पश्चात अष्टांगयोग की सहायता से उन्हें मोक्ष प्राप्त कराया।
फिर सांतवें दिन तक्षक परीक्षित को डसने आये पर वे तो अपना शरीर पहले से ही त्याग चुके थे। उधर जब जन्मजय को पिता के असवान की सूचना प्राप्त हुई तो उन्हें तक्षक पर बड़े क्रोध आया। उन्होंने सभी सांपों को मारने के लिए सर्पसत्र यज्ञ किया जिस कारण पृथ्वी के सभी सर्प हवन कुंड में आकर भस्म होने लगे। डरे हुए तक्षक ने इंद्र के सिंहासन पर कुंडली मार ली। अंत में आस्तिक मुनि के समझने पर राजा जन्मजय ने अपना यज्ञ रोका। इसके पश्चात पृथ्वी पर कोई भी ऐसा राजा नहीं बचा जो कलियुग को आने से रोक पाए।
शुक देव जी ने जिस वट वृक्ष के नीचे बैठ कर परीक्षित को भागवद्पुराण सुनाई थी वह ५००० वर्ष से भी अधिक पुराना वट वृक्ष आज भी अपनी शाखाएं फैलाये उत्तर प्रदेश के शुक्रताल (मुज़फ्फरनगर जिला) नामक स्थान पर खड़ा है। इस वृक्ष की विशेषता यह है की इतना पुराना होकर भी युवा प्रतीत होता है। दूसरे वट वृक्षों की तरह इस पर इतनी जटाएं नहीं आती हैं। और इस पर स्वतः ही एक गणेश प्रतिमा की आकृति प्राकृतिक रूप से बनी है। इस वट वृक्ष के नीचे शुकदेव जी एवं राजा परीक्षित जी की प्रतिमा है। शुखदेव जी के पद-चिन्हों के दर्शन भी भी वह किये जा सकते हैं। पूरा परिसर एक तीर्थ के रूप में जाना जाता है जहाँ अन्य प्राचीन मंदिर, धर्मशालायें, समागम स्थल स्थापित हैं. उस समय नदी का प्रवाह निकट ही था परन्तु वर्तमान में इसने अपना रास्ता बदल लिया है और नदी वहां से काफी दूर हो गई है. मंदिर में जाने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाना होता है।
शुक्रताल जाने के लिए दिल्ली से हरिद्वार या देहरादून जाते समय लगभग १२० किलोमीटर पर आपको मुजफ्फरनगर बाई पास से गुजरना होता है। इस रूट पर मोरना-बिजनोर की सड़क पर चलते हुए कुल २६ किलोमीटर की यात्रा में आप शुक्रताल पहुँच सकते हैं। आशा करते हैं कि इस मोक्षदा स्थली के दर्शन करने आप सभी अवश्य ही आएंगे।
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