मृत्यु को खेल समझने वाले राजस्थान के चूडावत व शक्तावत सरदारों की अद्भुत शौर्यगाथा |
भारतीय इतिहास की अगर बात की जाए तो हर कोई इसकी शुरुआत राजस्थान की धरोतल से करना चाहेगा। भारत मे अनेकों वीर योद्धाओं और शूरवीरों ने जन्म लिया जिनके त्याग बलिदान और वीरता के किस्से सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाते है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नों मे से एक पन्ना एसे ही दो वीरों का भी है जिनका जिक्र पुस्तकों के अलावा शायद ही कहीं किया जाता हो। क्या इन दो वीरों की कहानी लिखी जाने वाली स्याही इतनी फीकी है की जब भारतीय इतिहास के शूरवीरों के किस्से इतिहास के पन्नों से निकालकर लोगों के दिलों तक पँहुचाने की बारी आती है!
भारतीय इतिहास के दो एसे शूरवीरों से जिनका नाम और पद भले ही छोटा था परंतु उनकी वीरता और बलिदान महान शूरवीरों की तरह ही सराहनीय था भारतीय इतिहास की अगर बात की जाए तो हर कोई इसकी शुरुआत राजस्थान की धरोतल से करना चाहेगा। भारत मे अनेकों वीर योद्धाओं और शूरवीरों ने जन्म लिया जिनके त्याग बलिदान और वीरता के किस्से सुनकर हर किसी के रोंगटे खड़े हो जाते है।
कहा जाता है कि अगर भारत का इतिहास लिखना है तो इसकी शुरुआत राजस्थान की धरा से करनी चाहिए ! वीरों की अमर गाथा से भरे इस प्रदेश की हर दरो-दीवार पर यहां के शूरवीरों के शौर्य की कहानियां मिल जायेंगी ! राजस्थान का अपना गौरवमयी इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है !
बात उस समय की है जब मेवाड के शिशोदिया राजवंश के शासक महाराणा अमर सिंह गद्दी पर विराजन थे वे महाराणा प्रताप के पुत्र एवं महाराणा उदयसिंह के पौत्र थे। महाराणा अमर सिंह भी महाराणा प्रताप जैसे ही वीर थे।
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना की दो राजपूत रेजिमेंट चुण्डावत और शक्तावत में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एक प्रतियोगिता हुई थी ! इस प्रतियोगिता को राजपूतों की अपनी आन, बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देने का अद्भुत उदाहरण माना जाता है ! उन्होंने मुगलों से 18 बार युद्ध किया था महाराणा अमरसिंह की सेना मे दो राजपूत रेजिमेंट थी चुण्डावत और शक्तावत। विशेष पराक्रमी होने के कारण चुण्डावत खाप के वीरों को ही “हरावल” यानी के युद्ध भूमि में सबसे आगे रहने का गौरव प्राप्त था अतः वे उसे अपना हक समझते थे ! परंतु “शक्तावत” खाप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे! उनकी भी इच्छा थी की युद्ध क्षेत्र में सेना में आगे रहकर मृत्यु से पहला मुकाबला उनका हो अतः उन्होंने राजा के समक्ष अपनी याचिका रखते हुए कहा की हम चुण्डावत से त्याग, बलिदान एवं शौर्य के मामले में किसी भी प्रकार कम नहीं है. युद्ध भूमि में आगे रहने का हक हमें भी मिलना चाहिए। महाराणा जानते थे कि युद्ध भूमि में सबसे आगे रहना यानी मौत को सबसे पहले दावत देना। अपने सैनिकों की इस त्याग और बलिदान की भावना को जानकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए कि किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर युद्ध भूमि में आगे रहने का हक दिया जाए?
हरावल में आगे रहने का निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की, इस कसौटी के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही युद्ध भूमि में रहने का अधिकार दिया जाएगा !
इस पर उन्होंने एक प्रतियोगिता आयोजित करवायी और प्रतियोगिता के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों पक्ष उन्टाला किले पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे अतः जिस पक्ष का कोई भी एक व्यक्ति पहले किले में प्रवेश करेगा उसी पक्ष को ही युद्ध भूमि में आगे रहने का हक दिया जाएगा! इस पर दोनों पक्ष सहमत हो गए। बल्लू शक्तावत, शक्तावत पक्ष का नेत्रतव कर रहे थे और जैत सिंह चुण्डावत, चुण्डावत पक्ष का। दोनों पक्षों ने एक साथ प्रतियोगिता को आरंभ किया। प्रतियोगिता के शुरुआत मे लग रहा था की जैत सिंह चुण्डावत ही जीतेंगे परंतु अंतिम क्षणों मे बल्लू शक्तावत पक्ष किले के दरवाजे के निकट पहुँच गया और दरवाजे पर कब्जा जमा लिया
प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दोनों दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग (किले) पर आक्रमण कर दिया ! शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुण्डावत वीरों ने पास ही दुर्ग की दीवार पर रस्से डालकर चढ़ने का प्रयास शुरू कर दिया ! इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए लोहे के नुकीले शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया !
हाथी को पीछे हटते देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत, अद्भुत बलिदान का उदाहरण देते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे ! एक बार तो महावत सहम गया, किन्तु फिर वीर बल्लू को साक्षात यमराज जैसा क्रोधावेश में देखकर उसे विवश होना पड़ा | अंकुश खाकर हाथी ने शक्तावत सरदार बल्लू को टक्कर मारी, फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में घुस गए और वे वीर-गति को प्राप्त हो गये ! उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया!
शक्तावत के दल ने दुर्ग का फाटक तोड़ दिया ! दूसरी ओर चूडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो ! साथी जब ऐसा करने में असमर्थ दिखा तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया ! फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, तो उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था ! तो वह भी हैरान रह गए। दोनों पक्षों की तरफ से एसे सराहनीय बलिदान देखकर महाराणा अमर सिंह भी आश्चर्य चकित रह गए और उन्होंने आदेश दिया की दोनों पक्षों की तरफ से बराबर मात्रा मे योद्धा आगे रहकर सेना का नेत्रत्व करेंगे।
इतिहास इस बात का साक्षी है की वीरों की ख्याति उन्ही को प्राप्त हुई है जिन्होंने लड़ते लड़ते अपने प्राण त्याग दिए परंतु अपनी आन बान और शान पे कभी आंच नहीं आने दी। क्या आपको नहीं लगता की बल्लू शक्तावत और जैत सिंह चुण्डावत ने भी भारत भूमि पर जन्मे और शूरवीरों की तरह अपनी आन बान और शान के लिए ही अपने प्राणों की आहुति दी थी !
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