योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
समता ही योग है। यही इस श्लोकांश का अर्थ है। भगवान् कहते हैं कि समता में स्थिति होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है वही साधक का लक्ष्य है।
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विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर,ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है,उसे ही शांति की अवस्था प्राप्त होती है।
या हम अपने शब्दों में हम कह सकते हैं कि इच्छाएं और कामनाओ को लेकर किसी भी मनुष्य को शांति का अनुभव नहीं हो सकता है,मनुष्य केवल अपनी तीव्र इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए ही लालयित और प्रयासरत रहता है ऐसी स्थितियों में उस मनुष्य को शांति का अनुभव भला कैसे हो सकता है।
हम जो भी कर्म करते हैं, कहि न कही उस कर्म के पीछे मनुष्य को उचित फल पाने की इच्छा या कामना जागृत निहित होती है,और यदि हमारी इच्छ।नुसार परिणाम नही आया तो ,हम निराश हो जाते है, क्योकि हमे अपनी इच्छानुसार फल प्राप्त नही हुआ।
परन्तु जो मनुष्य अपने कर्म को बिना किसी लोभ, काम, इच्छा, कामना के बिना केवल और केवल मात्र अपने कर्मो को करता है, या आने कर्तव्यों को करता है,कर्म में किसी भी प्रकार का अहंकार निहित नही होता है,निश्चित ही वह शांति का मार्ग प्रशस्त करता है, क्योकि इस कार्य मे इच्छा और कामना नही होती,केवल कर्तव्य होता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
मनुष्य को बिना फल की इच्छा किये बिना अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे क्योकि उस कर्म में कही न कही आपका स्वार्थ निहित है। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकार अपना काम करते रहो। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
(नरक के द्वार की इस श्लोक में चर्चा की गई है)
काम, क्रोध व लोभ। यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
काम का अर्थ इच्छाओं से है ।। क्रोध का अर्थ गुस्सा ।। लालच का अर्थ तृष्णा,अतिलोभ,लोलुपता से है। भगवान श्री कृष्ण ने इन तीनो काम,क्रोध,लोभ को नरक का द्वार माना है, ये वही 3 अवगुण हैं जिनके माध्यम से मनुष्य दूसरे मनुष्य को स्वार्थवश दुख पहुंचाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
अतः: इन अवगुणों को मनुष्यो कोमत्याग कर देना चाहिए,ये आपको अधोगति प्रदान करते हैं।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।
यदि हम केवल कर्म न करें कि क्या हमारे द्वारा किये गए कर्म का परिणाम बुरा या अच्छा हो सकता है,यदि संशय मन में आ जाए तो ये हमारी मूर्खता है, व्यर्थ समय गवाने से कोई अर्थ है आर्थिक हानि, अपयश, और समय की हानि ही होती है,परन्तु फिर भी प्रकृति हमसे कर्म किसी न किसी प्रकार से कर्म करवा ही लेती है,इसलिए कर्म के प्रति कभी उदासीन नही होना चाहिए,अपनी योग्यता, विवेक और सामर्थ्य के अनुसार कर्मो को करना चाहिए ।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:
श्री कृष्ण कहते है कि तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्मानुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
अर्जुन के माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना।
जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्यों को चाहिए कि वह संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।
जीभ,त्वचा, आँखे,कान,और नाक ये मनुष्य की पांच इंद्रियां हैं भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो इन इंद्रियों को अपने बस में कर लेता है,वो इन सांसारिक मोह माया से ऊपर उठकर नित प्रतिदिन नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर होता है,और जीवन मे अपने कर्तव्यों का निर्वाह सम्पूर्ण निष्ठा से करता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
उदाहरणार्थ अगर किसी भी शैक्षणिक संस्थान में प्राचार्य मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां के दूसरे अन्य आचार्य भी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।
!! ॐ नमो वासुदेवाय नम: !!
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