‘गुरू‘ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। पारमार्थिक और सांसारिक ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरू कहा जाता है। माता पिता हमारे प्रथम गुरु होते हैं जो हमे इस संसार मे लाते हैं और हमे जीवन की राह में चलना सिखाते है, और तत्त्पश्चात हमारे माता पिता के साथ साथ गुरू ही होता है जो हमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने में हमारी मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं। हमारे जीवन में गुरू के महत्व को धर्म ग्रंथों में विस्तार से संस्कृत भाषा में समझाया गया है। आइये हम प्रयास करते हैं गुरु की महिमा :-
“गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।।”
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है, उन गुरुओं को सादर प्रणाम।।
“दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि॥”
तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते हैं तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता ! गुरु अपने चरणों का आश्रय लेने वाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहीं है, गुरु तो अलौकिक है ।
“अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम :।।”
जो अखण्ड है, सकल ब्रह्माण्ड में समाया है, चर-अचर में तरंगित है, उस (प्रभु) के तत्व रूप को जो मेरे भीतर प्रकट कर मुझे साक्षात दर्शन करा दे, उन गुरु को मेरा शत शत नमन है अर्थात वही पूर्ण गुरु है।
गुरु ग्रंथ साहिब में वर्णित:
“जि पुरखु नदरि न आवई तिस
का किआ करि कहिआ जाई,
बलिहारी गुर आपने जिनि
हिरदै दिता दिखाई।।”
बलिहारी है उस गुरु को, जिन्होंने उस परम पुरख अर्थात परमात्मा को हृदय के भीतर दिखा दिया,यही गुरु का गुरुत्व है ,उनके पूर्णत्व का प्रमाण है ।
उस महान गुरु को अभिवादन, जिसने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और मृत में।
“धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।”
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।
“गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते।
गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशय: ।।”
गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र (कही भी) भी नहीं मिलता,गुरु कृपा से निस्संदेह सब कुछ प्राप्त कर ही लेता है।
“विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।”
ज्ञानवान, निपुणता, विनम्रता, पुण्यात्मा, मनन चिंतन हमेशा सचेत और प्रसन्न रहना ये साथ शिक्षक के गुण है।
“प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः।।”
प्रेरणा देेंने वाले, सूचन देने वाले, (सच) बताने वाले, (रास्ता) दिखाने वाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध कराने वाले – ये सब गुरु समान है।
“गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।”
‘गु’ का आशय, अंधकार और ‘रु’ याने तेज; जो अंधकार का निरोध (ज्ञान का प्रकाश देकर अंधकार को रोकना) करता है, वही वास्तव में गुरू कहलाता है।
“यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः।
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः।।”
गुरु सब प्राणियों के प्रति वीतराग और मत्सर से रहित होते हैं। वे जीतेन्द्रिय, पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं।
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