उनका प्रारंभिक जीवन और संघर्ष:
बदलते समय के साथ साथ हमने अनेको बलिदानियों और उनके बलिदान को भूला दिया है ,आरम्भ से ही पंजाब और भारत के इतिहास में खत्रियो का बहुत बड़ा योगदान रहा है और इन्ही बलिदानियों में से एक थे खत्री (क्षत्रिय)कुल में जन्मे स्वर्गी महाशय राजपाल इनका जन्म भारत की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक व ऐतिहासिक नगरी अमृतसर में आषाढ़ संवत् की पंचमी (ईस्वी वर्ष १८८५ ) को हुआ था ,इनके पिताजी का नाम स्वर्गी लाला रामदास खत्री था |
महाशय राजपाल जी बचपन से ही बड़े बुद्धिमान, परिश्रमी व धैर्यवान् थे और पड़ने में भी योग्य थे ,उनके पिता के गृहत्याग के बाद भी उनके कदम न डगमगाए ,इससे उनकी माता जी और भाई संतराम समेत पुरे परिवार पर व्रजपात सा हो गया और इसी दीन-हीन अवस्था में जैसे-तैसे मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और इन विपत्तियों से घिरकर भी उन्होंने कभी हिम्मत न हारी और कठिन परिस्थितियों ने इनके जीवन को और निखार प्रदान किया |
इसके बाद उन्होंने किताबत’ (सुलेख लिखने वाले उन्हें एक विशेष कागज पर लिखते थे, फिर उनकी छपाई होती थी। इसी कला को ‘किताबत’ कहते हैं। )का धंधा अपनाया उस समय पंजाब में उर्दू का प्रभुत्व था। उर्दू की पुस्तक छापने से पहले कम्पोज़ नहीं की जाती थी। कार्य के सिलसिले में उनकी भेट अमृतसर में एक प्रसिद्ध आर्यसमाजी हकीम फतहचन्द रहते थे ,जिन्हे एक कर्मचारी की आवश्यकता थी,उनसे हुई । राजपाल जी ने बारह रुपये मासिक आय पर हकीम जी के पास नौकरी की और अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता, सत्यनिष्ठा आदि गुणों से राजपाल ने हकीम जी के हृदय में एक विशेष स्थान प्राप्त किया |
समाज के लिए योगदान:
राजपाल जी ने जनशुद्धि के लिए ही एक बाल सुधार सभा’ नाम का संगठन खड़ा किया था और अपने मुहल्ले के लड़कों से सम्पर्क किया, उनको इकट्ठा किया,इस संगठन में हिन्दू सिख बालक तो थे ही ,साथ में मुसलमान बालक भी थे | इस संगठन का सिद्धांत ही था इन बालको को चरित्र निर्माण जो हर किसी के बस की बात नहीं है ,इस सभा का आरम्भ प्रतिदिन रात्रि ८ बजे हुआ करता था और राजपाल जी सब बालकों को जीवन निर्माण के लिए धर्मोपदेश दिया करते थे। इस सभा में मांस-भक्षण, तम्बाकू व मदिरा पान आदि विषयों पर वाद-विवाद हुआ करते थे।
इस सभा के प्रचार से अनेक युवकों ने दुर्व्यसनों का परित्याग किया। कितने ही युवक कुसंगति से बचे और कल्याण-मार्ग के पथिक बनकर यशस्वी हुए। एक ऐसे ही प्रसंग एक बार घटित हुआ जब उन्हें उक्त सभा में मांस-भक्षण विषय पर एक मुसलमान युवक से शास्त्रार्थ करना पड़ा चूँकि उस युग के सभी आर्यसमाजी कार्यकर्ता आवश्यकता पड़ने पर लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ करने से पीछे नहीं हटते थे,सभी आर्यपुरुष स्वाध्यायशील हुआ करते थे। उन दिनों अमृतसर में धार्मिक विषयों पर बड़े-छोटे शास्त्रार्थ होते ही रहते थे। आर्य समाज के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी मास्टर आत्माराम जी भी अमृतसर से थे और उस दिन शास्त्रार्थ में श्रोताओं को राजपाल जी के गहन व विस्तृत अध्ययन का पता चला। अपनी छोटी-सी आयु में इन्होने धर्म-ग्रंथों का बहुत लगन से अनुशीलन किया था और इसके फलस्वरूप वह शास्त्रार्थ में विजयी रहे। राजपाल जी युवावस्था से ही सदाचारी व परोपकारी थे, उनके सम्पर्क में आने वाले सब लोग उनके सौजन्य की प्रशंसा किया करते थे। वे परिश्रमी व सत्यनिष्ठ तो थे ही, साथ ही उनमें विनम्रता व मिठास के दो गुण ऐसे थे, जिनके कारण वे बेगानों को भी अपना बनाना जानते थे।
वे दूसरों को प्रायः ‘जी’ कहकर सम्बोधित किया करते थे। उनके स्वभाव के माधुर्य पर सब रीझ जाते थे।स्वतंत्रता के पहले पंजाब में हिन्दी का प्रचलन बहुत कम था, हिन्दी के प्रकाशक तो नगण्य थे। अधिकतर पुस्तकें उर्दू या पंजाबी में प्रकाशित होती थीं। उस काल में महाशय राजपाल ने ‘आर्य पुस्तकालय’ तथा ‘सरस्वती आश्रम’ नामों के अन्तर्गत हिन्दी प्रकाशन का न केवल श्रीगणेश किया, बल्कि वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार के सशक्त माध्यम बने।
पहले, जब पुस्तक प्रकाशन बिल्कुल अव्यवस्थित था, प्रकाशन कला सीखने के लिए आज की तरह न कोई सुविधाएं थीं, न ही इस विषय पर कोई प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध थी, राजपाल जी ने स्तरीय प्रकाशन के ऐसे आयाम स्थापित किए कि आज उन पर विश्वास करना भी कठिन लगता है। लाहौर में रहते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध ‘इंडियन प्रेस’ से छपवाई थीं। राजपाल जी ने जब ‘आर्य पुस्तकालय’ नाम से आर्य साहित्य प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया तो ‘सरस्वती आश्रम ग्रन्थमाला’ के रूप में एक से एक उत्तम पुस्तक-श्रृंखला जनता को भेंट की। इस ग्रंथमाला की दूसरी पुस्तक थी ‘सत्योपदेश माला’। यह स्वामी सत्यानन्द के प्रवचनों व लेखों का संग्रह था, जो राजपाल जी ने स्वयं स्वामी जी के प्रवचनों को सुनकर लिपिबद्ध किया था।
राजपाल जी ने उस समय की अंग्रेज़ी भाषा की चर्चित पुस्तकों के प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे, जैसे- ‘मेरी स्टोप्स’ की लोकप्रिय पुस्तक ‘मेरिड लव’ का पं. संतराम बी. ए.द्वारा हिन्दी अनुवाद ‘विवाहित प्रेम’ नाम से।
दूसरी ओर ऐसे विषयों की पुस्तकों को हिन्दी में प्रकाशित करने का साहस भी किया, जो वर्जित थे। भारत में परिवार-नियोजन पर सबसे पहली हिन्दी पुस्तक ‘सन्तान संख्या का सीमा बन्धन’ उन्होंने प्रकाशित की थी। यह ३०० पृष्ठों की सचित्र प्रामाणिक पुस्तक थी। ‘बर्थ कंट्रोल’ के लिए तब हिन्दी का कोई शब्द प्रचलित नहीं हुआ था, क्योंकि जनसाधारण में जन्म निरोध की न समझ थी और न ही उसकी उपयोगिता का ज्ञान था। पुस्तक प्रकाशित होने पर उथलपुथल मची थी , और अनेको विरोध का समाना करना पड़ा था |
धर्म के लिए उनका बलिदान:
बात है सं १९२३ की जब उन्हीं दिनों मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें प्रकाशित की गईं- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और ‘उन्नीसवीं सदी का महर्षि’। उन दोनों पुस्तकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण और महर्षि दयानन्द पर बहुत ही भद्दे और अश्लील शब्दों में कीचड़ उछाला गया था, उस समय धर्मप्रेमी भी अधर्मियों का उत्तर उन्ही की तरह देते थे | इसी प्रतिउत्तर के लिए १९२४ में “रंगीला रसूल” के नाम से पुस्तक छापी गई , जिसमें मुहम्मद (मुसलमानो के पैगंम्बर ) की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक का नाम “दूध का दूध और पानी का पानी “छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे और महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे |
मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण पंडित चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसल उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कैसी भी असहनीय स्थिति क्यूँ न आ जाये आप किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे |
महाशय राजपाल रंगीला रसूल के प्रकाशक थे और राजपाल एण्ड सन्स, हिन्दी पुस्तकों के एक प्रमुख प्रकाशक की स्थापना १९१२ में लाहौर में महाशय ने ही की थी। आरम्भ में इस प्रकाशन ने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी भाषाओं में आध्यात्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित कीं थी |
महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अंतिम समय में अपने प्राणों की बलि देकर की और पंडित चमूपति जी को दिया हुआ वचन निभाया | १९२४ में छपी रंगीला रसूल आम पुस्तकों की तरह बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया परन्तु एकाएक मुस्लिम हितेषी और सिर्फ हिन्दुओ को अहिंसा का पाठ बतलाने वाले महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त निति में इस प्रतिउत्तर पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा।
इस लेख का काम राजयपाल जी के विरुद्ध भड़की आग में घी का काम किया और महात्मा गाँधी ने पीछे से इस प्रतिआत्मक युद्ध में मुसलमानों की तरफ से बिगुल बजा दिया ,इसके परिणाम स्वरूप कई मुस्लिमो ने राजयपाल के विरुद्ध अनेको आंदोलन छेड़ दिए ,इन्ही आंदोलन की आवाज़ सरकार तक पहुँच गई जिसके फलस्वरूप उन पर धारा १५३ अ के अधीन ४ वर्ष का अभियोग चला और उन्हें निचली न्यायालय के आदेश अनुसार १. ५ वर्ष का कारावास अथवा १००० रूपये का दंड भोग हुआ ,१९२४ से १९२९ तक के पाँच वर्षों के दौरान उन्हें अनेक बार यह कहा गया कि आप असली लेखक का नाम बता दें, तो हमें आपसे कोई शिकायत नहीं रहेगी।
यह बात उस ज़माने के प्रमुख मुस्लिम दैनिक पत्र ‘ज़मींदार’ में भी प्रकाशित हुई थी, परन्तु महाशय राजपाल जी ने एक ही बात दोहराई थी कि इस पुस्तक के लेखन-प्रकाशन की पूरी जिम्मेदारी मेरी ही है, अन्य किसी की नहीं। उन्होंने जो वचन दिया, उसे अन्त तक निभाया। इन पाँच वर्षों के दौरान उन्हें यह भी कहा गया था कि आप इस पुस्तक का प्रकाशन बन्द कर दें और माफ़ी मांग लें। खत्री राजपाल जी ने एक ही उत्तर दिया कि “मैं विचार-स्वातंत्र्य और प्रकाशन की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ और अपनी इस मान्यता के लिए बड़े से बड़ा दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूँ।”इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर उनका १ साल का कारावास कम कर दिया और इसके बाद यह मामला दिलीप सिंह की उच्च अदालत में भेजा गया जहाँ महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया |
इस निर्णय से मुसलमान भड़क उठे और उन्हें मारने के लिए उपाय सोचने लगे तभी उन पर पहला हमला खुदाबख़श नामक एक पहलवान मुसलमान द्वारा किया गया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे ,उस समय आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज भी वहां पर उनके साथ उपस्थित थे। उन्होंने खुदाबख़श को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका और उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई,उसके कुछ दिन पश्चात ही उन पर दूसरा हमला रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नामक मुसलमान ने एक हाथ में चाकू अथवा दूसरे में उस्तरा लेकर किया और उसके इस हमले में स्वामी जी गंभीर रूप से घायल हो गए और अब्दुल अजीज जैसे ही भगाने लगा तभी पड़ोस के दुकानदार खत्री नानकचंद कपूर जी और उनके भाई चुनीलाल कपूर दोनों उसे पकड़ने में घायल हो गए परन्तु आगे अनारकली चौक पर उसे बंदी बना लिया गया और उसे १४ वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की प्रत्याभुति का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा और इसी बिच उनपर ६ अप्रैल १९२९ को तीसरा और सफल हमला इल्मदीन ने उनकी छाती में छूरा भोक कर किया जिसके फलस्वरूप राजपाल जी परलोक सिधार गए और इल्मदीन अपनी जान बचाने के लिए महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया और राजपाल जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया देखते ही देखते हजारों लोगो की भीड़ वह एकत्रित हो गई और उनके प्रति लोगो की श्रद्धा का अनुमान आप उनकी इस शव यात्रा के अंग से ही लगा सकते है जब लाहौर के हिन्दुओं द्वारा यह निर्णय हुआ की अंतिम संस्कार अगले दिन किया होगा ,यह सुनकर पुलिस के मन में निराधार भूत का भय बैठ गया और डिप्टी कमिश्नर ने रातों रात धारा १४४ लगाकर सरकारी अनुमति के बिना जुलुस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया और अगले दिन प्रात: सात बजे ही हजारों लोगो की भीड़ एकत्रित हो गई , भीड़ शव यात्रा को शहर के बीच से निकालना चाहती थी ,परन्तु कमिश्नर इसकी अनुमति नहीं दे रहा था और फलस्वरूप भीड़ में रोष फैल गया ।
अधिकारियों ने लाठी चार्ज का आदेश दे दिया जिससे पच्चीस व्यक्ति घायल हो गए। अधिकारियों से पुन: बातचीत हुई और पुलिस ने कहाँ की लोगों को अपने घरों जाने दे दिया जाये। इतने में पुलिस ने फिर से लाठी चार्ज कर दिया और १५० के करीब व्यक्ति घायल हो गए पर भीड़ जस की तस वही टिकी रही । शव को वही अस्पताल में ही रहन दिया गया । दुसरे दिन सरकार एवं आर्यसमाज के नेताओं के बीच एक समझोता के तहत शव को मुख्य बाजारों से धूम धाम से ले जाया गया। हिंदुओं ने बड़ी श्रद्धा से अपने मकानों से पुष्प वर्षा कर अपनी श्रद्धांजलि दी और ठीक पौने बारह बजे हुतात्मा की नश्वर देह को महात्मा हंसराज जी ने अग्नि दी। महाशय जी के ज्येष्ठ पुत्र प्राणनाथ जी तब केवल ११ वर्ष के थे पर आर्य नेताओं ने निर्णय लिया की समस्त आर्य हिन्दू समाज के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा हंसराज मुखाग्नि दे। जब दाहकर्म हो गया तो अपार समूह शांत हो गया और उसके उपरांत स्वामी स्वत्रंतानन्द जी ने एक प्राथर्ना करवाई और प्राथर्ना के अंत में राजपाल की धर्मपत्नी साध्वी उठ कर बोली की मुझे अपने पति के इस प्रकार मारे जाने का दुःख अवश्य हैं पर साथ ही उनके धर्म की बलिवेदी पर बलिदान देने का अभिमान भी हैं। उनकी ख्याति और इस महान बलिदान को स्वामी परमानन्द जी ने अपनी सम्पादकिय में ” आर्यसमाज के इतिहास में यह अपने दंग के तीसरा बलिदान” की संज्ञा दी और है और पंजाब के सुप्रसिद्ध पत्रकार व कवि नानकचंद जी “नाज़” ने तब एक कविता में खत्री महाशय राजपाल के बलिदान का यथार्थ चित्रण में लिखी थी-
फ़ख से सर उनके ऊँचे आसमान तक तक हो गए,हिंदुओ ने जब अर्थी उठाई राजपाल।
फूल बरसाए शहीदों ने तेरी अर्थी पे खूब, देवताओं ने तेरी जय जय बुलाई राजपाल।
हो हर इक हिन्दू को तेरी ही तरह दुनिया नसीब जिस तरह तूने छुरी सिने पै खाई राजपाल।
तेरे कातिल पर न क्यूँ इस्लाम भेजे लानतें, जब मुजम्मत कर रही हैं इक खुदाई राजपाल।
मैंने क्या देखा की लाखों राजपाल उठने लगे दोस्तों ने लाश तेरी जब जलाई राजपाल।विभाजन के बाद महाशय जी के परिजन दिल्ली आकर प्रकाशन के काम में लग गये। जून १९९८ में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पहले ‘फ्रीडम टु पब्लिश’ पुरस्कार से स्वर्गीय राजपाल जी को सम्मानित किया और उनके पुत्र विश्वनाथ जी ने पुरस्कार ग्रहण किया। खत्रियो में जन्मे महाशय राजपाल जी हमे बहुत कुछ बतला गए ,अपना खत्री धर्म क्या है और उसका पालन कैसे करना है ,आज हर खत्री मेरी इस पोस्ट को पड़ने के बाद खुद पर गर्व करने लगेगा की हमारे पुरखो ने देश धर्म के लिए कितने बलिदान दिए |
“माँ भारती तेरा वैभव अमर रहे हम दिन चार रहे न रहे “ इस कथन को खत्रियो ने समय समय पर प्रमाणित कर दिखाया है |
जय माँ भारती ||
जय खत्रीवंशी ||
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