महाभारत काल से एक अटूट रिश्ता है मध्यप्रदेश के शहडोल (विराटनगर) का,पांडवों ने निर्मित किये थे 1 लाख महल और सहस्त्रो तालाबों का निर्माण
ऐसा कहा जाता हैं कि महाभारत का धर्मयुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले हुआ था, ये कोई किवदंती नही, बल्कि वास्तविक इतिहास है परन्तु कुछ गैर सनातनी विचारधाराओं के समूह ने रामायण,महाभारत जैसे काल को भी मिथ्या का रूप देने का प्रयास भरपूर किया है,परन्तु सत्तोलॉजी सत्य पर आधिरत, सनातनी और वातावरणीय प्रमाण,आर्यवर्त के वेद,शास्त्र,ग्रंथ इस सत्य को का प्रमंडलीय स्तर पर प्रमाड़ित भी हो चुका है ,कि यह घटना और काल कोई मिथ्या नही बल्कि सत्यता पर आधारित है।
यह लेख कही न कहीं महाभारत की सत्यता को दर्शाता है और जिसका प्रमाण मध्यप्रदेश के शहडोल पूर्व का नाम विराट नगर में स्थित मंदिर,कूप,सरोवर,गुफाओ से मिलता है,ऐसा कहा जाता और माना जाता है कि अज्ञातवास के समय पाण्डवो ने अपना समय यहां विराट नगर राजा विराट की नगरी में बिताया और यह भी कहा जाता है और कहते हैं कि महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान जिस विराट नगर का वर्णन है वह यही विराट नगर है,जो मध्यप्रदेश के शहडोल को कहा जाता है।
यहाँ के राजा,राजा विराट थे। विराट मंदिर के समीप ही बाणगंगा में पाताल तोड़ अर्जुन कुंड स्थित है। शहडोल का पूर्व नाम सहस्त्र डोल बताया जाता है,जिसका अर्थ यह हुआ कि विराटनगर (आज का शहडोल) में लगभग 100 तालाबो से ज्यादा तालाब हैं, यह भी कहा जाता है की विराट नगर में जब पांडवों ने अज्ञातवास काटा उस समय प्रतिदिन पांडव एक तालाब की खुदाई करते थे और उसी तालाब का जल ग्रहण करते थे,इस औसत से पांडवों ने 1 साल के अज्ञातवास में 365 तालाब की खुदाई हुई। विराटनगर में कल्चुरी राजाओं का राज जहाँ भी रहा उन्होने वहाँ सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया है।
पुरातत्व विभाग और मंदिर की व्यवस्था सम्भाले हुए व्यक्ति ने बताया कि 70 साल पहले मंदिर के सामने का हिस्सा धराशायी हो गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था। उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया।
अब यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत है,फिर भी भारतीय पर्यटकों और विदेशी सैलानियों का आना जाना विराटनगर के अद्भुत विराट मंदिरमें आना जाना कम या बिल्कुल नही है,जो कहीं न कहीं पर्यटन के लिए खतरा है और विलुप्तता की ओर है। मंदिर का मुख्य द्वार शिल्प की दृष्टि से उत्तम है। मुख्यद्वार के सिरदल पर मध्य में चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा विराजित हैं,बांई ओर मां वीणावादिनी एवं दांई ओर बांया घुटना मोड़ कर बैठे हुए गणेश जी स्थापित हैं। मंदिर का वितान भग्न होने के कारण उसमें बनाई गई शिल्पकारी गायब है।
मन्दिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। जिसकी ऊंचाई लगभग 8 इंच होगी तथा जलहरी निर्मित है एवं तांबे के एक फ़णीनाग भी शिवलिंग पर विराजित हैं। यह मंदिर पूजित है और यहां प्रतिवर्ष बाणगंगा का मेला लगता है जो कि लगभग 125 साल पुराना है।
मंदिर के उच्चशिखर पर आमलक एवं कलश मौजूद है। बाहरी भित्तियों पर सुंदर प्रतिमाएं लगी हुई है। दांई ओर की दीवाल पर वीणावादनी, पीछे की भित्ती पर शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं।
इस विराटमंदिर में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह के चित्र भी दिखाई देता है,जो महाभारत काल की पुष्टि करता है, अन्यथा भगवान शिव के मंदिर में गांडीवधारी अर्जुन के चित्र का क्या अवचित्त होता।
इस मंदिर को गौर से देखने मे यह पता चलता है कि इस मंदिर में जो उनमिक कामसूत्र के चित्र भी प्रदर्शित हैं
इन कामकेलि आसनों को देख कर आश्चर्य होता है यहाँ मैथुनरत स्त्री के साथ दाढी वाला पुरुष दिखाई देता है।
इससे जाहिर होता है कि यह स्थान शैव तंत्र के लिए भी प्रसिद्ध रहा होगा। प्रतिमाओं में प्रदर्शित मैथुनरत पुरुष कापालिक है। कापालिक वाममार्गी तांत्रिक होते हैं। वे पंच मकारों को धारण करते हैं – मद्यं, मांसं, मीनं, मुद्रां, मैथुनं एव च। ऐते पंचमकार: स्योर्मोक्षदे युगे युगे।
मान्यता है कि जिस तरह ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। इसलिए कापालिक शैवोपासना करते हैं।
उदय वर्मा के भोपाल शिलालेख में ई. सन् 1199 में विन्ध्य मंडल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक के ग्राम गुनौरा के दान में दिये जाने का उल्लेख है. इससे तथा देवपाल देव (ई. सन् 1208) के हरसूद शिलालेख से यह पता उल्लेख है कि जिले के मध्य तथा पश्चिमी भागों पर धार के राजाओं का अधिकार था ।
गंजाल के पूर्व में स्थित सिवनी-मालवा होशंगाबाद तथा सोहागपुर तहसीलों में आने वाली शेष रियासतों पर धीरे-धीरे ई.सन् 1740 तथा 1755 के मध्य नागपुर के भोंसला राजा का अधिकार होता गया ।
भंवरगढ़ के उसके सूबेदार बेनीसिंह ने 1796 में होशंगाबाद के किले पर भी अधिकार कर लिया. 1802 से 1808 तक होशंगाबाद तथा सिवनी पर भोपाल के नबाव का अधिकार हो गया, किंतु 1808 में नागपुर के भोंसला राजा ने अंतत: उस पर पुन: अधिकार कर लिया।
वर्ष 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युध्द में होशंगाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तथा उसे सन् 1818 में अप्पा साहेब भोंसला द्वारा किए गए अस्थायी करार के अधीन रखा गया।
सन् 1820 में भोंसला तथा पेशवा द्वारा अर्पित जिले सागर, तथा नर्मदा भू-भाग के नाम से समेकित कर दिए गए तथा उन्हें गवर्नर जनरल के एजेंट के अधीन रखा गया, जो जबलपुर में रहता था।
उस समय होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से लेकर गंजाल नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था तथा हरदा और हंडिया सिंधिया के पास थे।इस मंदिर के आस पास कई छतरियाँ (मृतक स्मारक) बनी दिखाई देती हैं।
मंदिर के मंडप में अन्य स्थानों से प्राप्त कई प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जिनमें पद्मासनस्थ बुद्ध की प्रतिमा विराजमान है।
125 साल पुराना है विराटनगर का बाणगंगा मेला
बांण गंगा मेले का नाम आते ही जहन मे 125 वर्ष पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। इस मेले की शुरूआत तात्कालीन रीवा महाराजा गुलाब सिंह ने 1895 मे कराई थी। तब से बांणगंगा मे निरंतर मेले की परांपरा चली आ रही है। मेले का उदेश्य स्नान, दान व पुण्य की मिसाल कल्चुरी कालीन एक हजार पहले बने विराट मंदिर के प्रांगण में अपनी अमिट छाप छोड़ रही है।
मेले का स्वरूप भी रहट से आकाशीय झूले तक पहुंच चुका है। मेले में लोगों का मेल मिलाप और उत्साह पुरानी रीति रिवाज को समेटे हुए आदिवासियों के प्रकृति प्रेम का गवाह बना हुआ है। जब मेले की शुरुआत हुई थी तब तीन दिन तक ही मेला रहता था। जो अब 5 दिन तक भरने लगा है।
कैसे हुई शरुआत बाणगंगा मेले की
जानकार बताते हैं कि मेला आयोजन के लिए महाराजा गुलाब सिंह ने एक कमेटी बनाई थी। जिसमें सोहागपुर इलाकेदार राजेन्द्र सिंह शारदा कटारे,व ठाकुर साधू सिंह शामिल रहे। इन्हें सोहागपुर इलाकेदार का नजदीकभी माना जाता था। इसी कमेटी ने बांणगंगा में मेला लगाने का प्रस्ताव पास किया गया। और इस मेले का प्रचार प्रसार करने के लिए गांव-गांव डुग्गी (मुनादी कराना) पिटवाकर प्रचार-प्रसार किया गया। उस जमाने में भी रहट झूले का चलन था। जो अपनी आवाज के लिए लोगों के बीच एक खास पहचान रखता था। बदलते वक्त के साथ अब मेले ने भी आधुनिक रूप ले लिया है। भजन कीर्तन से लेकर कवि सम्मेलन,नृत्य मंण्डली मेले मे मनोरंजन का साधन बन रही हैं।
यहां का विराट मंदिर है खास और अद्भुत संस्कृति का परिचायक
बांणगंगा मेले में विराट मंदिर देखने की ललक लोगो को दूर-दूर से खींच लाती है। विराट मंदिर एक हजार वर्ष पुराना है। इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। 9वीं 10वी शताब्दी में इसे कर्चुली शासक युवराज देव प्रथम ने बनवाया था। उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र में 84 हजार इस तरह के मंदिर बनबवाने का संकल्प लिया था। लेकिन दो ही मंदिर बनवा सके। जिसमें एक विराट मंदिर और दूसरा उमारिया जिले का मढ़ीबाग मंदिर शामिल है। इन दोनों ही मंदिरो में भगवान भोले नाथ विराजमान हैं। जिनके दरबार में मकर संकाति पर्व पर मेला लगता है। इसके बाद युवराज प्रथम के पुत्र अमरकंटक में कर्ण मंदिर और जबलपुर के भेड़ाघाट में 64 योगिनी और शहडोल जिले में अंतरा मंदिर बनवाया। जो कर्चुली कालीन की पहचान बने है।
पहले बांणगंगा का पानी होता था खास
जहॉ तक जानकारी है कि बाणगंगा मेले को महाराजा गुलाब सिंह ने शुरू करवाया था, वो पिछले कई साल से मेले को देखते आ रहे हैं, इसको महाराजा गुलाब सिंह ने शुरू करवाया था। बाणगंगा कुंड के पानी का औषधीय महत्व था, लेकिन अब बाणगंगा का पानी खराब हो गया है। कुंड में बाहर का पानी डालने से बाण गंगा का पानी का औषधीय महत्व नहीं रह गया।
All information entered is personal to the author. Any modification or changes must be addressed to the author.