श्री मद्भगवत गीता और श्री हरि के बैद्धिक व मानसिक प्रेरणा के आधार पर व्यक्ति अपने जीवन मे कैसे सफल हो सकता है, इस जीवन को सफलतम बनाने हेतु सफल जीवन के मंत्र
1- विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर वात्सल्य रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों और कर्मो का पालन करता है, उससे ही शांति प्राप्त होती है।
2-कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
हे अर्जुन- कर्म करना तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठा में नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्था में कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
3–ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
हे अर्जुन – जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार मानता है, मेरी आराधना करता है,भजता है ,अर्थात जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सभी प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
4- नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं क्योंकि योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख और शांति कहां से मिलेगा।
5- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
भगवान वासुदेव कहते है कि योग्य और श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष को भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
6- न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
(अध्याय 3 श्लोक 26)
श्री कृष्ण कहते है कि ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावें।
ज्ञानी और सकाम कर्म करने वाले पुरुषों की ही तरह कार्य करना चाहिए।
7- नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
भगवान कहते है , हे अर्जुन तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा, कर्म करना श्रेष्ठ है कर्म प्रधान है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर वहन भी नहीं कर सकता अर्थात निष्पादन भी नही कर सकता है ।
8- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
(अध्याय 3 श्लोक 5)
श्री कृष्ण कहते है कि कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, चाहे वह आराम की स्थिति में हो,कार्य की ,स्वप्न की स्थिति में हो उसे कर्मो को करते रहना चाहिए। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है। मनुष्य किसी भी अवस्था मे हो कर्म करते रहना चाहिए।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् –
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग—किसी भी मार्ग में साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकता अर्थात कर्म कर ।
All information entered is personal to the author. Any modification or changes must be addressed to the author.