सम्पूर्ण विश्व कोरोना महामारी से लड़ रहा है। भारत की उन्नत ज्ञान परम्परा और आयुर्वेद एक बार पुनः मानव कल्याण हेतु अग्रणी भूमिका निभाता हुआ प्रतीत हो रहा है। जहाँ पूरी दुनिया रुकी अथवा ठहरी प्रतीत हुई वहीं भारत आगे बढ़ता हुआ दिखा, कारण एक ही है भारत की सनातनी मूल्यों पर आधारित जीवन शैली। जिसे दुनिया अब जानने और मानने लगी है। सरकारों के आलावा अनेक स्वयंसेवी और सामजिक संगठन भी सामर्थ्यनुसार मानवता कल्याण हेतु इस आपद्काल में कार्य कर रहे हैं। परन्तु, एक संगठन ऐसा भी है जो स्वतंत्रता पूर्व से ही भारत और उसकी सनातनी परम्पराओं के संरक्षण और संवर्धन हेतु अनवरत कार्य कर रहा है, जिसका नाम है “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।”
सन 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा इस संघ नामक पौधे का बीजारोपण किया गया था जो आज एक विशाल वटवृक्ष बनकर खड़ा है। समाज का शायद ही ऐसा कोई वर्ग होगा जहाँ संघ किसी न किसी रूप में विद्यमान न होगा। सोशल मीडिया के अवतरण से पहले संघ को समान्य लोग बहुत कम जानते थे। यहाँ तक ऐसे भी दृष्टान्त मिलते थे कि यदि किसी व्यक्ति को आप पूछते थे कि क्या आप संघ अथवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में जानते हो, तो उत्तर मिलता था -“नहीं” अथवा ये क्या है? परन्तु यदि आप पूछते थे कि क्या RSS के बारे में जानते हैं तो उत्तर मिलता था “हाँ” अर्थात लोगों के लिए संघ और आरएसएस अलग अलग भी थे, ऐसा मेरे साथ कई बार हो चुका है। आखिर ऐसा क्यों होता था? यह एक बड़ा प्रश्न है।
एक ऐसा संगठन जो सन 1925 से राष्ट्रहित में अनवरत कार्य कर रहा है उसके बारे में लोगों में जानकारी का आभाव था। इसका कारण था संघ ने अपने साहित्य का निर्माण नहीं किया था और यदि किया भी था तो वह केवल स्वयंसेवको तक ही सीमित था अथवा हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओँ खासकर मराठी में था। संघ के दायरे के बाहर देश दुनिया के अन्य लोगों के लिए इसकी उपलब्धतता न के बराबर थी। जिसका फायदा संघ विरोधी लोग आज तक उठाते हैं।
वामपंथी, लेफ्ट लिबरल अथवा तथाकथित उदारवादियों ने अथवा इकोनॉमिक्स में अपनी सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के बाद इतिहासकार बने तथाकथित और पैरासुटेड इतिहासकारों ने संघ को लेकर विशेषकर अंग्रेजी भाषा में ऐसे मिथक और भ्रम फैलाये जिससे आज भी निजात पाने में संघ और उसके कार्यकताओं को मुश्किल होती है। इसका कारण है, संघ धरातल पर man to man कार्य करने की पद्धति का अनुसरण करता है, नाकि वामपंथियों की तरह बड़े बड़े हंगामें करते हुए अथवा लेख लिखकर, लिट् फेस्ट आदि आयोजित करके एक नैरेटिव गढ़ता है। इसके अपने फायदे और नुकशान हैं।
परन्तु अब समय बदल रहा है और बड़े स्तर पर संघ के स्वयंसेवक साहित्य निर्माण न करने की अथवा उचित प्रचार न करने की संघ की उस बेड़ी को तोड़ते हुए दिख रहे हैं और हर अच्छे प्रकाशन हाउस के साथ मिलकर साहित्य निर्माण करके अपनी बात रख रहे हैं, साथ ही साथ डिजिटल मंचों का उपयोग भी कर रहे हैं। यही कारण है कि अब समान्य लोग भी संघ के बारे में जानकारी रखने लगे हैं। इससे वामपंथी मिथकों का पटाक्षेप भी तीव्र गति से हो रहा है।
ऐसे ही लेखकों में से एक हैं, श्री रतन शारदा, जिनकी कई पुस्तकें संघ के प्रति फैलाये गए मिथकों के पर्दाफास करने का कार्य कर रही हैं और साथ ही साथ संघ के स्वयंसेवकों को भी शोधपूर्ण साहित्य उपलब्ध करा रही हैं। मैं स्वयं उन लोगों में से एक हूँ, जिसे श्री शारदा जी की पुस्तकों से बहुत लाभ प्राप्त हुआ है। रतन जी की पुस्तक “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ :परत दर परत” संघ के रहस्य का पटाक्षेप करती है, उसे पढ़कर कोई भी सामन्य व्यक्ति संघ को तत्वतः सरलता से समझ सकता है।
सन 1925 से शुरू हुआ संघ अनेक व्यवधानों और कठिन परीक्षाओं के बाद भी आज तक हर क्षण आगे ही बढ़ता जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर शारदा जी की इस पुस्तक जिसका शीर्षक RSS: Evolution from an organization to a movement में शोधपूर्ण तरीके से अंग्रेजी भाषा में दिया गया है। देश के इतिहास में हुए अनेक आंदोलन, संगठनों में परिवर्तित हुए हैं अर्थात “Movement से Organization” बने, राजनितिक क्षेत्र में तो इनकी भरमार है। पंरतु रतन जी अपनी पुस्तक के शीर्षक में लिखते हैं “Organization to Movement” जो निश्चित रूप से प्रचलित ऐतिहासिक परिपाटी के विपरीत है और पुस्तक को पाठकों के लिए आकर्षक बनाता है। ।
374 पृष्ठों की इस पुस्तक में नौ अध्याय हैं, जिनमें लेखक ने अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ति करते हुए गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। सुप्रसिद्ध लेखक और Indian Institute of Advanced Study, शिमला के निदेशक डॉ मकरंद परांजपे ने इस पुस्तक का प्राक्क्थन लिखा है। पुस्तक का प्राककथन और भूमिका पाठक को ऐसी यात्रा पर ले जाती है कि पुस्तक के आगामी पृष्ठ स्वतः ही पलटने लग जाते हैं।
पुस्तक संघ के सरसंघचालकों, जिनको मीडिया जगत ने “संघ प्रमुख” का नाम भी दिया है, के बारे में विस्तृत शोध है जो कदाचित अन्य पुस्तकों में मिलना थोड़ा सा दुष्कर कार्य है। पुस्तक में संघ के प्रत्येक सरसंघचालक के कार्यकाल में संघ में आए परिवर्तन और उस परिवर्तन से आये परिणाम की यात्रा का विस्तृत वर्णन है।
पुस्तक में संघ के सरसंघचालक को एक व्यक्ति विशेष न बताते हुए, एक सम्पूर्ण संस्था के रूप में वर्णित किया है। सरसंघचालक के आचरण से ही संघ की छवि प्रदर्शित होती है, जिसके कारण उनके ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी होती है क्योंकि उन्हें संघ की श्रेष्ठ परम्पराओं का नेतृत्व और निर्वहन करना होता है। आज तक संघ के सरसंघचालक दायित्व का निर्वहन करने वाले सभी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त रहे हैं, सभी के पास उच्च IQ, EQ और SQ रहा है।
जहाँ आज छोटी छोटी संस्थाओं के नेता अथवा राजनितिक दलों के नेता बड़े बड़े होटलों में रहना पसंद करते हैं, वही संघ के सरसंघचालक स्वयंसेवकों के घरों में और संघ कार्यलयों में रहकर सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। कई बार लोग कहते हैं कि संघ के प्रचारक घर परिवार छोड़कर संघ का काम करते हैं, परन्तु इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि प्रचारक अपना परिवार छोड़कर संघ का काम नहीं करते बल्कि अपना परिवार बड़ा करके काम करते हैं, उनके लिए एक परिवार नहीं बल्कि अनेक कार्यकर्ताओं के परिवार ही अपना परिवार होते हैं। संघ के सरसंघचालक ‘समाज अपना घर है’ इस विचार का प्रतिपादन शीर्ष स्तर से करते हैं। कोई भी व्यक्ति यदि उनके दैनिक व्यय के बारे में जान ले तो ‘आश्चर्य’ शब्द उनके लिए बहुत छोटा होगा, एक जिला प्रचारक जितना व्यय करता होगा, उनका व्यय भी कदाचित उससे थोड़ा बहुत ऊपर नीचे ही रहता है।
सभी सरसंघचालकों ने स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए संघ की इस यात्रा को आगे बढ़ाया है। उदाहरण स्वरुप लिखूं तो, श्री गुरूजी ने कहा था कि संघ के संस्थापक के अलावा किसी का भी स्मृति स्थल नहीं होगा और उनके अनुगामी बाला साहब देवरस और रज्जु भैया तो एक कदम और आगे बढ़े। रज्जु भैया ने कहा था,” मेरी मृत्यु जहाँ होगी मेरा अंतिम संस्कार भी वही होगा, सम्पूर्ण भारत मेरा घर है ” उनका अंतिम संस्कार पुणे में किया गया था जबकि उनका जन्म प्रयाग में हुआ था। ये बातें उन लोगों के लिए भारी पत्थर उठाने जैसी हैं जो हमेशा से अपनी अथवा परिवार विशेष की स्मृतियाँ अथवा स्मृति स्थल निर्मित करने में लगे रहते हैं।
प्रत्येक सरसंघचालक ने संघ के ध्येय को नवीन आयाम और दिशा दी है, जो प्रथम सरसंघचालक के आदर्शों के अनुसार ही रही है। व्यक्तित्व की तुलना में संगठन का ध्येय महत्वपूर्ण है-इस विचार का संवर्धन करने हेतु स्वयं का उदाहरण देते हुए कार्य करने के कारण ही संघ का सरसंघचालक अपने आप में एक संस्था होता है।
पुस्तक के आगामी अध्यायों में संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत के कार्यकाल में आये परिवर्तन और परिवर्तन से आये परिणाम का विस्तृत वर्णन है। संघ के प्रत्येक सरसंघचालक ने एक नायक के रूप में अपने जीवन के उदाहऱण प्रस्तुत करते हुए संघ कार्य को सुदृढ़ किया, इस पुस्तक में उन उदाहरणों का विस्तृत स्वरूप मिलेगा, साथ ही साथ यह पुस्तक निम्न बिंदुओं पर भी विस्तृत प्रकाश डालती है :
- सन 1925 से लेकर वर्तमान समय तक इस “सरसंघचालक” नामक “संस्था” के मार्गदर्शन में पले बढे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ऐसे कौन से कारक हैं जो उसे अन्य संगठनों से भिन्न अथवा अतुलनीय बनाते हैं।
- सन 1925 में नागपुर के एक छोटे से कोने मोहिते के बाड़े में कुछ बालकों के साथ डॉ हेडगेवार के खेल कूद करने, एक साथ व्यायाम करने और देशभक्ति के गीत गाने के कार्यक्रम (जिसको “शाखा” कहते हैं) से शुरू हुआ ये उद्यम आज राष्ट्रीय स्तर का संगठन बना चुका है, यहाँ तक की विदेशों में भी इसकी उपस्थिति है और लोग इसे दुनिया का सबसे बड़ा गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठन भी कहते है। संघ की शाखा से लेकर संगठन और अब एक आंदोलन बनने की यात्रा पर इस पुस्तक में शोधपूर्ण विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
- देश के ऐतिहासिक आरोह-अवरोह में सन 1925 से लेकर आज तक कितने संगठन आए और लुप्त हो गए या विभाजित हो गए या सिकुड़ गए, परन्तु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्थापना से लेकर आज तक अविचल बढ़ रहा है, विभाजन तो दूर की बात है। यहाँ तक कि इस अकेले संगठन ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, राष्ट्र सेविका समिति, जैसे कई राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की नीव रखी और आज ये सभी स्वायत संगठन हैं, जिनके कार्यकर्ताओं की संख्या लाखों में है। एक इतने पुराने संगठन में आज तक कोई कलह क्लेश न हुआ और न ही कोई विभाजन-ये अपने आपमें एक शोध का विषय है। इस प्रश्न का उत्तर भी इस पुस्तक में विस्तार से मिलेगा।
- सन 1925 से लेकर अनेक व्यवधानों का धैर्य से सामना करते हुए सतत आगे बढ़ने वाला यह संगठन आखिर यहाँ तक पहुंचा कैसे और आगे भी क्यों चलता रहेगा? इस प्रश्न का उत्तर भी इस पुस्तक में विस्तार से मिलेगा। संघ के अनेक अज्ञात पहलु इस पुस्तक में मिलेंगे तो निःसंदेह इसके आलोचकों को सोचने पर विवश करेंगे और स्वयंसेवकों को प्रेरणा देंगे।
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