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भोजन और जीवन में उसका महत्व
भोजन और उसका उद्देश्य
    जीवन मे भोजन या भोजन में जीवन

हम इस संसार मे अपना जीवन व्यतीत करते हैं और शरीर के पूर्ति के लिए भोजन करना और जीना दूसरी ओर भोजन के द्वारा जीवन शैली होना एक बहुत सरल से दिखाई देने वाला भाव है। लेकिन वस्तुतः इन दोनों बातों में बहुत अंतर हैं।

  • जैसा खाएं अन्न वैसा होये मन
  • जैसा पिये जल वैसे होये वाणी

अब

अन्न के उत्तपत्ति से लेकर वितरण और उसके बाद अन्न से भोजन बनाने के बाद भोग लगा कर ग्रहण करने तक बहुत महत्वपूर्ण प्रणाली है जिसको हम सब अपनी दृष्टि में महत्व नही देते। क्या आपको पता है अन्न ग्रहण करने से भूख तो मिटती है लेकिन कभी तृप्ति होती है। 

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लेकिन अपने स्थूल दृष्टि से न दिखे लेकिन सूक्ष्म और कारण दृष्टि से इसके अनु और कण से हमारे मन , कर्म और आचरण पर अनंत प्रभाव पड़ता है।

क्या आपको ज्ञात है कि जो भोजन हम करते हैं वह चार भाग में बंटता है

1. मन (अंतःकरण)

2. रक्त

3. वीर्य

4 मल (स्थूल भाग)

लेकिन अभी तक हम भोजन को केवल पेट भरने की दृष्टि से या इंद्रियों की तृप्ति के लिए कैसे भी कहीं भी किसी भी जगह और किसी के हाथों से बना हुआ खा लेते हैं। लेकिन क्या इस बात की और आपका ध्यान कभी गया है कि हमारा मन जो है शांत, सुख और आनंद के लिए इधर उधर क्यों भटकता रहता है।भोजन के समय जैसे मन मे विचार बातें दृष्टि रहेगी उसके परमाणु वैसा ही प्रभाव डालेंगे।

इसलिये भोजन के समय पर चलचित्र, व्यर्थ चर्चा और गपशप जैसी भावना भी नही रखें। जो अशांति, भागम भाग अस्त व्यस्त प्रणाली है, उसके कारण अंतःकरण और मन मे कामना,क्रोध,मोह मद,लोभ, अहमता और अज्ञानता का प्रभाव रहता है और हम इसके लिए किस किस व्यक्ति वस्तु परिस्थिति और कारण स्थान को दोष देते रहते हैं और दुख प्राप्त करते रहते हैं, शरीर पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है और कितनी बीमारियां हम सब ग्रसित हो जाते हैं।

तो इसके लिए हमारे ग्रन्थों में, ऋषि मुनियों ने और स्वयं श्री हरि ने भी सात्विकता और सकरात्मकता पर बल देते हुए इसके होने वाले प्रभाव और लाभ का वर्णन किया है। यह लेख में श्री हरि के द्वारा और उन्ही को समर्पित भाव से सबके लाभ हेतु लिख रहा हूँ। शाांत स्वभाव से हरि सिमरण करते हुए भोजन से करने का विशेष प्रभाव देखने को मिलेगा।

जहां भोजन बने वह स्थान, जहाँ भोजन करें वह स्थान, वहां का वायुमंडल, वह आसान पवित्र हो, जूते चप्पल उतार कर, हाथ पैर मुह धोकर ही भोजन करने के लिए बैठें।

क्योंकि उस स्थान के परमाणु भी भोजन के साथ ग्रहण होते हैं। स्थान में शांति, पवित्रता, और भाव विचार आचरण बनाने और खाने वाले का शुद्ध हो शांत हो प्रसन्न हो।

क्रोध, कामना और लोभ के अंश बिल्कुल न आये।

पूर्व की और मुख करें और यदि मन्त्र उच्चारण कर सकेें तो उत्तम  रहेगा ।

पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्तयुपहरतमशनमि पर्यतात्मनः।। 9-26 गीता

अर्थ :- जो भक्त पत्र पुष्प फल जल आदि को प्रेमपूर्वक मुझे अर्पण करता है उस मुझमे तल्लीन हुए अंतःकरण वाले भक्त के द्वारा उस भेंट को मैं स्वीकार करता हूँ।
इसको बोलकर भगवान को अर्पण कर दें।

जल लेकर
ब्रह्माअर्पणम ब्रह्म हविब्रह्मरगनो ब्रह्मणा हुतम। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4-24 गीता

अर्थ:- जिससे से अर्पण किया जाए वह पात्र भी ब्रह्म पदार्थ भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप करता द्वारा ब्रह्मरूप आहुति में देनारूप क्रिया और उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म है।
यह बोल कर आचमन करे और भोजन का पहला ग्रास हरि का नाम लेकर मुख में लें।

भगवान नाम लेने से अन्न दोष दूर होता है। किसी की दृष्टि भोजन पर पड़ती है तो वह अपवित्र हो जाता है। भोजन उसके निमित्त कर दें।
भोजन के अंत मे
अन्नाभदवंति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाभदवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुभदवः।।
कर्म ब्रह्मोभदवम विद्धि ब्रह्मा क्षर समुभदवम। तस्मात्सर्वगतम ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठतम।। 3-14-15 गीता

अर्थ:- सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से और यज्ञ कर्म से सम्पन्न होता है, वेदों से जानकर और वेदों का अक्षर ब्रह्म से प्रकट हुआ है इसलिए सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में नित्य स्थित हैं।

अंत मे  – अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। प्राणपंसमयुक्त: पचाम्यन्न चतुर्विधम ।। 15-14 गीता

अर्थ:- श्री हरि प्राण अपान से जठराग्नि होकर इस अन्न का पाचन करते हैं।

भोजन के समय जैसे मन मे विचार बातें दृष्टि रहेगी उसके परमाणु वैसा ही प्रभाव डालेंगे।

लक्ष्य हो शांत चित्त मन और अंतःकरण से शांति, एकाग्रता और आनंद प्रफुल्लित जीवन जियें। वह जब इतनी सरलता से हमे उपलब्ध है तो क्यों न इसको सभी अपनाएं।


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